इतिहास – कक्षा 12 (कोर्स C)
अध्याय 1 : औपनिवेशिक शासन और ग्रामीण क्षेत्र – सरकारी अभिलेखों का अध्ययन (Colonialism and the Countryside: Exploring Official Archives)
परिचय (Introduction)
- ब्रिटिश शासन के दौरान भारत का ग्रामीण समाज केवल खेतों और फसलों का क्षेत्र नहीं था, बल्कि यह एक जटिल सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था थी।
- औपनिवेशिक नीतियों ने भारत की कृषि, भूमि स्वामित्व, उत्पादन के तरीके और किसान-जमींदार संबंधों को पूरी तरह बदल दिया।
- ब्रिटिश अधिकारियों ने शासन चलाते हुए विशाल मात्रा में सरकारी अभिलेख (Official Archives) तैयार किए — जैसे सर्वेक्षण, रिपोर्टें, राजस्व रजिस्टर आदि।
- इन्हीं अभिलेखों के माध्यम से आज इतिहासकार औपनिवेशिक काल के ग्रामीण भारत को समझते हैं।
- यह अध्याय तीन क्षेत्रों के उदाहरण लेकर इस परिवर्तन का अध्ययन करता है —
- बंगाल में स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement)
- बंबई दक्कन में रैयतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari System) और किसान आंदोलन
- दक्कन दंगे आयोग (Deccan Riots Commission) की जांच रिपोर्ट
- इन अध्ययन से हमें औपनिवेशिक भूमि नीतियों, किसानों की प्रतिक्रिया और अभिलेखों के उपयोग की गहराई से समझ मिलती है।
1. बंगाल और जमींदार (Bengal and the Zamindars)
1.1 पृष्ठभूमि – ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन
- प्लासी का युद्ध (1757) और बक्सर का युद्ध (1764) जीतने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल की राजनीतिक और आर्थिक शासक बन गई।
- 1765 में कंपनी को मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय से दीवानी अधिकार मिले — अर्थात राजस्व संग्रह का अधिकार।
- कंपनी के अधिकारी व्यापारी थे, प्रशासक नहीं; उनका प्रमुख उद्देश्य था राजस्व बढ़ाना ताकि व्यापार और शासन चल सके।
- बंगाल को ब्रिटिशों ने अपने प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया जहाँ नई राजस्व नीतियाँ लागू की गईं।
1.2 स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement), 1793
- लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा 1793 में लागू किया गया; इसमें जॉन शोर ने प्रमुख भूमिका निभाई।
- इसका उद्देश्य था भूमि स्वामित्व को स्थायी बनाकर कृषि उत्पादकता बढ़ाना।
- ब्रिटिश मानते थे कि जब किसान केवल किरायेदार होंगे तो वे सुधार में निवेश नहीं करेंगे, इसलिए उन्हें जमींदारों के रूप में स्वामी अधिकार दिए गए।
- मुख्य प्रावधान:
- जमींदारों को भूमि का स्थायी स्वामित्व मिला।
- उन्हें हर वर्ष सरकार को निश्चित (फिक्स्ड) राजस्व देना था।
- यह राशि हमेशा के लिए स्थिर रखी गई — इसे बढ़ाया नहीं जा सकता था।
- जमींदारों से अपेक्षा थी कि वे
- कृषि में सुधार करें,
- सिंचाई, सड़कों आदि में निवेश करें,
- किसानों की रक्षा करें और समय पर राजस्व जमा करें।
1.3 स्थायी बंदोबस्त के परिणाम
(क) सरकार के लिए परिणाम:
- शुरू में सरकार को नियमित आय मिलने लगी।
- परंतु समय के साथ उत्पादन और मूल्य बढ़े, जबकि राजस्व स्थिर रहा।
- सरकार को महसूस हुआ कि उसे अधिक राजस्व प्राप्त हो सकता था यदि दरें समय-समय पर बदली जातीं।
(ख) जमींदारों के लिए परिणाम:
- कई जमींदार समय पर राजस्व नहीं चुका सके।
- उनकी भूमि ‘सनसेट कानून’ (Sunset Law, 1797) के तहत नीलाम कर दी गई।
- एक नया वर्ग उभरा — गैर-हाजिर (Absentee) जमींदार, जो कलकत्ता जैसी शहरों में रहते थे।
(ग) किसानों के लिए परिणाम:
- किसानों पर भारी किराया, जबरन वसूली और बेगार का बोझ पड़ा।
- उनके पास भूमि पर स्थायी अधिकार नहीं थे।
- वे महाजनों के कर्ज में फँसते गए और बेदखली झेलनी पड़ी।
(घ) कृषि के लिए परिणाम:
- जमींदारों ने सुधारों में निवेश नहीं किया।
- खेती पारंपरिक रही, सिंचाई और उत्पादकता में वृद्धि नहीं हुई।
- 1770 का अकाल इस व्यवस्था की कमजोरी को उजागर करता है।
1.4 जमींदार और उसका इलाका
- जमींदार केवल कर वसूलने वाला नहीं, बल्कि स्थानीय समाज में प्रमुख और संरक्षक भी था।
- उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक थी कोठी (कटचहरी), मंदिर और त्योहारों का आयोजन।
- कुछ जमींदार बड़े भूभाग के स्वामी थे, तो कुछ केवल कुछ गाँवों के।
- आर्थिक प्रतिस्पर्धा और कर का दबाव उन्हें महाजनों के ऋण पर निर्भर बनाता गया।
1.5 किसान (रैयत) और गाँव
- रैयत ही कृषि का आधार था।
- अधिकांश छोटे किसान थे, जिनकी भूमि सीमित या किराए पर थी।
- वे धान, गन्ना, जूट, नील जैसी फसलें उगाते थे।
- जमींदार और सरकार दोनों से दबाव झेलते हुए उन्हें महाजनों से ऋण लेना पड़ता था।
- ग्रामीण समाज में वर्गभेद था –
- सम्पन्न किसान कभी-कभी भूमि उपकिराए पर देते थे।
- गरीब किसान मजदूर बन जाते या पलायन करते।
1.6 ग्रामीण तनाव
- जमींदारों और किसानों के बीच लगातार संघर्ष चलता रहता था।
- किसान कई बार किराया देने से इनकार, याचिकाएँ, या छोटे विरोध करते थे।
- पटनी प्रथा (Patni tenure) के कारण भूमि स्वामित्व और जटिल हुआ।
- 19वीं सदी के मध्य तक बंगाल में कृषि संकट और असंतोष फैल चुका था।
1.7 बंगाल के अभिलेख स्रोत
- ब्रिटिश शासन के समय बने प्रमुख अभिलेख:
- राजस्व रिपोर्टें
- कलेक्टर की डायरियाँ
- अदालत के अभिलेख
- जमींदारी दस्तावेज़
- ये अभिलेख प्रशासनिक दृष्टि से बने थे, इसलिए किसानों की आवाज़ इनमें कम दिखाई देती है।
- इतिहासकारों को इन्हें ‘अभिलेख के खिलाफ पढ़ना’ पड़ता है — यानी छिपे अर्थ को समझना।
- किसानों की याचिकाएँ उनके संघर्ष और पीड़ा की झलक देती हैं।
2. कुदाल और हल (The Hoe and the Plough)
2.1 कृषि विस्तार
- 19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार ने व्यावसायिक फसलों (जैसे कपास, नील, अफीम, गन्ना) की खेती को प्रोत्साहित किया।
- उद्देश्य था – ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चा माल प्राप्त करना।
- इसके कारण –
- वनों की कटाई
- नए क्षेत्रों में खेती का प्रसार
- पारंपरिक खेती में परिवर्तन
- लेकिन इससे पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ा और किसानों का जीवन कठिन हुआ।
2.2 रैयतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari System) – बंबई दक्कन
- यह व्यवस्था थॉमस मुनरो द्वारा मद्रास में शुरू की गई और फिर बंबई दक्कन में लागू हुई।
- इसमें भूमि राजस्व सीधे किसान (रैयत) से लिया जाता था, कोई जमींदार नहीं था।
- मुख्य विशेषताएँ –
- प्रत्येक किसान को भूमि का स्वामित्व दिया गया।
- भूमि की उपज और उपयुक्तता देखकर वार्षिक कर तय किया जाता था।
- कोई मध्यस्थ (intermediary) नहीं था।
- लेकिन कर दरें बहुत उच्च और कठोर थीं।
- खराब मौसम या फसल खराब होने पर भी किसान को कर देना पड़ता था।
2.3 किसान का जीवन
- किसान का जीवन पूरी तरह मानसून और ऋण पर निर्भर था।
- कर चुकाने के लिए वह महाजन (साहूकार) से उधार लेता था।
- फसल खराब होने पर ऋण बढ़ता गया और ब्याज पर ब्याज जुड़ता गया।
- कानूनी व्यवस्था महाजनों के पक्ष में थी — भूमि जब्त कर ली जाती थी।
- किसान धीरे-धीरे अपनी ही भूमि पर मजदूर या किरायेदार बन गया।
2.4 कपास और वैश्विक मांग
- ब्रिटिश कपड़ा उद्योग को भारतीय कपास की बड़ी आवश्यकता थी।
- अमेरिकी गृहयुद्ध (1861–65) के दौरान अमेरिकी कपास की आपूर्ति रुक गई।
- दक्कन में कपास की कीमतें बढ़ीं, किसान अधिक उत्पादन करने लगे।
- उन्होंने ऋण लेकर बीज, हल, बैल खरीदे।
- लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद जब अमेरिकी कपास वापस बाजार में आया, तो कीमतें गिर गईं।
- किसान कर्ज नहीं चुका सके — परिणामस्वरूप आर्थिक संकट और दंगे हुए।
2.5 बदलता परिदृश्य
- नए औजार जैसे लोहे का हल आए, लेकिन गरीब किसान उन्हें खरीद नहीं पाते थे।
- खेती पारंपरिक कुदाल और लकड़ी के हल पर ही निर्भर रही।
- सामूहिक चरागाह और साझा भूमि कम होती गई।
- पर्यावरणीय गिरावट और सूखे ने स्थिति को और बदतर बनाया।
3. ग्रामीण विद्रोह – बंबई दक्कन (A Revolt in the Countryside)
3.1 दक्कन दंगों की पृष्ठभूमि (1875)
- 1870 के दशक में बंबई दक्कन में आर्थिक संकट और ऋणग्रस्तता चरम पर थी।
- किसान महाजनों के कर्ज के जाल में फँस चुके थे।
- महाजनों द्वारा
- अत्यधिक ब्याज,
- धोखाधड़ीपूर्ण हिसाब,
- भूमि की जब्ती
से किसान असंतुष्ट थे।
- इन सबने मिलकर दक्कन दंगों (Deccan Riots, 1875) को जन्म दिया।
3.2 दंगों की घटनाएँ
- दंगे सबसे पहले अहमदनगर जिले के सुपा गाँव में मई 1875 में भड़के।
- किसानों ने महाजनों की दुकानों और घरों पर हमला किया।
- उन्होंने खाते-बही और ऋण पत्र (bond papers) जलाकर कर्ज के रिकॉर्ड नष्ट कर दिए।
- यह आंदोलन अन्य गाँवों में भी फैल गया।
- किसानों ने सरकारी अधिकारियों पर हमला नहीं किया — उनका लक्ष्य केवल महाजन थे।
- यह अनुशासित और संगठित आंदोलन था, अराजक नहीं।
3.3 ब्रिटिश प्रतिक्रिया
- ब्रिटिश प्रशासन पहले तो चिंतित हुआ लेकिन सख्त दमन नहीं किया।
- उन्हें समझ आया कि यह आंदोलन राजनीतिक नहीं, आर्थिक था।
- इसलिए उन्होंने 1878 में दक्कन दंगे आयोग (Deccan Riots Commission) बनाया।
- आयोग ने किसानों, महाजनों और अधिकारियों से साक्ष्य लेकर रिपोर्ट तैयार की।
4. दक्कन दंगे आयोग (Deccan Riots Commission)
4.1 गठन और कार्य
- यह आयोग औपनिवेशिक भारत में किसानों की स्थिति पर सरकारी जांच आयोग था।
- आयोग ने
- मौखिक बयान,
- याचिकाएँ,
- राजस्व रिपोर्टें एकत्र कीं।
- इसमें वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी और राजस्व विशेषज्ञ शामिल थे।
- रिपोर्ट को सरकारी अभिलेख का हिस्सा बनाया गया।
4.2 आयोग के निष्कर्ष
- मुख्य कारण बताए गए:
- भारी राजस्व दरें।
- महाजनों द्वारा अत्यधिक ब्याज वसूली।
- कानून का पक्ष महाजनों के पक्ष में होना।
- 1865 के बाद कपास के दामों में गिरावट।
- आयोग ने माना कि किसान अनुशासित लेकिन पीड़ित वर्ग हैं।
- उसने सुझाव दिए –
- ब्याज दरों पर नियंत्रण,
- गैर-कृषकों को भूमि स्थानांतरण पर रोक,
- किसानों के कानूनी अधिकारों की सुरक्षा।
4.3 दक्कन कृषक राहत अधिनियम (Deccan Agriculturists’ Relief Act, 1879)
- आयोग की सिफारिशों पर 1879 में यह अधिनियम पारित हुआ।
- प्रमुख प्रावधान:
- किसान अत्यधिक ब्याज के खिलाफ न्यायालय में अपील कर सकते थे।
- उन्हें कानूनी सहायता दी गई।
- कर्ज न चुका पाने पर भूमि जब्ती पर प्रतिबंध।
- यह भारत में किसानों की सुरक्षा के लिए पहला कानूनी कदम था।
4.4 अभिलेखों का अध्ययन
- दक्कन दंगे आयोग की रिपोर्ट औपनिवेशिक ग्रामीण समाज की झलक देती है।
- लेकिन ये अभिलेख औपनिवेशिक दृष्टिकोण से लिखे गए थे — किसानों को अज्ञानी और भावनात्मक बताया गया।
- इतिहासकार इन स्रोतों को आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ते हैं ताकि छिपी सच्चाइयाँ सामने आएं।
- इन अभिलेखों में किसान प्रतिरोध और ब्रिटिश मानसिकता दोनों झलकते हैं।
5. निष्कर्ष (Conclusion)
5.1 औपनिवेशिक कृषि परिवर्तन की समझ
- औपनिवेशिक शासन ने भारतीय ग्रामीण जीवन को राजस्व नीतियों, वाणिज्यिक खेती और कानूनी सुधारों से पूरी तरह बदल दिया।
- बंगाल में स्थायी बंदोबस्त ने जमींदारों को शक्तिशाली बनाया और किसानों को शोषित किया।
- दक्कन में रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसानों को सीधा करदाता बनाकर बोझ बढ़ाया।
- दोनों व्यवस्थाएँ ब्रिटिश राजस्व लाभ के लिए बनाई गईं, न कि किसान हित के लिए।
5.2 किसान प्रतिरोध और स्वर
- किसान केवल पीड़ित नहीं थे, उन्होंने विरोध, याचिका और विद्रोह के माध्यम से अपनी आवाज उठाई।
- किराया न देना, ऋण पत्र जलाना, अदालतों में याचिका देना — ये सब उनके असंतोष के प्रतीक थे।
- यद्यपि ये आंदोलनों स्थानीय थे, फिर भी उन्होंने औपनिवेशिक अन्याय को उजागर किया।
5.3 सरकारी अभिलेखों का उपयोग
- औपनिवेशिक अभिलेख इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, परंतु ये एकतरफा दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
- ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीय समाज को वर्गीकृत और नियंत्रित करने के उद्देश्य से अभिलेख तैयार किए।
- आधुनिक इतिहासकार इन स्रोतों का प्रयोग करते हैं ताकि ‘नीचे से इतिहास’ (history from below) लिखा जा सके।
- इनसे किसानों की संघर्ष, सहनशीलता और अनुकूलन की कहानियाँ भी उजागर होती हैं।
5.4 औपनिवेशिक नीतियों की विरासत
- औपनिवेशिक काल की भूमि नीतियों ने भारत में गहरी समस्याएँ छोड़ीं —
- भूमि असमानता
- ऋणग्रस्तता
- नकदी फसलों पर निर्भरता
- स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधार और किरायेदारी कानून इन्हीं अन्यायों को सुधारने का प्रयास थे।
- औपनिवेशिक ग्रामीण व्यवस्था को समझना आधुनिक भारत की कृषि समस्याओं को समझने के लिए आवश्यक है।
सारांश बिंदु (Summary Points)
- ब्रिटिश राजस्व नीतियाँ क्षेत्रानुसार अलग थीं, पर उद्देश्य एक ही था — राजस्व अधिकतम करना।
- बंगाल में स्थायी बंदोबस्त, दक्कन में रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई।
- किसानों पर अत्यधिक बोझ और ऋण ने दक्कन दंगों (1875) को जन्म दिया।
- दक्कन दंगे आयोग रिपोर्ट (1878) औपनिवेशिक ग्रामीण जीवन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
- किसानों ने अपने प्रतिरोध से अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई।
- औपनिवेशिक अभिलेखों में शासन की मानसिकता झलकती है, पर उनमें किसानों की आवाजें भी छिपी हैं।
