🟩 अध्याय 6 – लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट
🔹 प्रस्तावना
- लोकतंत्र एक ऐसी प्रणाली है जिसमें सत्ता जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता की ही होती है।
- स्वतंत्रता के बाद भारत ने संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित लोकतांत्रिक ढांचा अपनाया।
- हालांकि, 1970 के दशक में भारत ने एक बड़ा राजनीतिक संकट देखा, जिसने लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती की परीक्षा ली।
- यह अध्याय आपातकाल (1975-77), उसके कारण, राजनीतिक घटनाओं और परिणामों पर केंद्रित है।
🔹 आपातकाल का पृष्ठभूमि
- राजनीतिक अस्थिरता और विपक्ष:
- 1970 के दशक की शुरुआत में कांग्रेस पार्टी को क्षेत्रीय पार्टियों और समाजवादी आंदोलनों से बढ़ती चुनौती का सामना करना पड़ा।
- राजनीतिक असंतोष के कारण भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति और बेरोजगारी बढ़ी।
- न्यायिक चुनौतियाँ:
- केसावनंद भारती मामला (1973): सर्वोच्च न्यायालय ने बुनियादी संरचना का सिद्धांत स्थापित किया, जिससे संसद की संवैधानिक संशोधन शक्ति सीमित हुई।
- न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच तनाव बढ़ा।
- सामाजिक असंतोष:
- नवनीरमन आंदोलन (1973, गुजरात) और जेपी आंदोलन (1974, बिहार) ने राजनीतिक और आर्थिक सुधारों की मांग की।
- छात्रों और श्रमिकों के आंदोलन और हड़तालें बढ़ीं।
- 1971 उप-चुनाव में हार:
- जनता में असंतोष और सरकार की लोकप्रिय जनादेश में कमी की धारणा बनी।
🔹 आपातकाल की घोषणा
- तारीख: 25 जून 1975
- घोषक: राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद, अनुच्छेद 352 के तहत।
- कारण: आंतरिक अशांति (बाद में बदलकर “राष्ट्रीय आपातकाल” कर दिया गया)।
- लागू प्रावधान:
- मौलिक अधिकारों का निलंबन (अनुच्छेद 19 सहित)।
- संसद की निगरानी कमजोर हुई और कार्यपालिका को असाधारण शक्तियाँ मिलीं।
- आपातकाल की मुख्य विशेषताएँ:
- पत्रकारिता पर सेंसरशिप और विरोध को दबाना।
- राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी बिना मुकदमे के।
- सत्ता का केंद्रीकरण, संघीय सिद्धांतों को कमजोर करना।
- नीतिगत कदम: जबरन नसबंदी अभियान, झुग्गी-झोपड़ी हटाना, और आर्थिक नियंत्रण।
🔹 आपातकाल के बाद की राजनीति
- 1977 के आम चुनाव:
- मार्च 1977 में आपातकाल समाप्त किया गया।
- जनता पार्टी की निर्णायक जीत, कांग्रेस का प्रभुत्व समाप्त।
- लोकतंत्र की बहाली:
- मौलिक अधिकार पुनर्स्थापित।
- प्रेस स्वतंत्रता और राजनीतिक अभिव्यक्ति पुनः प्रारंभ।
- संवैधानिक सुरक्षा मजबूत हुई:
- 44वां संशोधन (1978) ने आपातकाल की शर्तों को कठोर बनाया, जिससे कार्यपालिका की मनमानी शक्ति कम हुई।
- राजनीतिक सबक:
- लोकतंत्र में संस्थागत संतुलन और नियंत्रण आवश्यक है।
- नागरिक सक्रियता और समाजिक जागरूकता लोकतांत्रिक मानकों की रक्षा में महत्वपूर्ण हैं।
- सत्ता का केंद्रीकरण संघीय और लोकतांत्रिक ढांचे को खतरे में डाल सकता है।
🔹 आपातकाल के परिणाम
- राजनीतिक:
- कांग्रेस का प्रभुत्व समाप्त, गठबंधन राजनीति का उदय।
- नागरिकों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी।
- सामाजिक:
- सरकार पर जनता का अविश्वास; जवाबदेही की मांग बढ़ी।
- मानवाधिकार उल्लंघन ने सतर्कता की आवश्यकता उजागर की।
- कानूनी/संवैधानिक:
- 44वां संशोधन सुरक्षा उपाय; न्यायिक समीक्षा मजबूत हुई।
- मौलिक अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका सुदृढ़ हुई।
- आर्थिक:
- जबरन नसबंदी और झुग्गी हटाने जैसी नीतियों का जनता ने विरोध किया।
- स्पष्ट हुआ कि लोकतांत्रिक सहमति के बिना आर्थिक विकास समस्याग्रस्त हो सकता है।
🔹 निष्कर्ष
- आपातकाल का काल (1975-77) भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रमुख चुनौती था, जिसने संस्थाओं और मानकों की मजबूती की परीक्षा ली।
- इससे स्पष्ट हुआ कि जवाबदेही, पारदर्शिता और नागरिक सतर्कता के बिना लोकतंत्र नाजुक है।
- आपातकाल के बाद सुधारों ने संवैधानिक सुरक्षा उपाय मजबूत किए, जिससे भविष्य में सत्ता का दुरुपयोग रोका जा सके।
- इस संकट ने नागरिक स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और राजनीतिक विपक्ष की भूमिका के महत्व को उजागर किया।
- परिणामस्वरूप, भारत मजबूत लोकतांत्रिक संस्थाओं, बढ़ी हुई राजनीतिक जागरूकता और भविष्य के शासन के लिए सबक लेकर उभरा।
