कबीर – साखियाँ एवं सबद कक्षा 12

कबीर – साखियाँ एवं सबद

प्रस्तावना

भारतीय साहित्य और भक्ति आंदोलन में कबीर का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे न केवल संत कवि थे, बल्कि एक ऐसे सामाजिक सुधारक भी थे जिन्होंने अपने समय की रूढ़ियों, पाखंडों और जातिगत भेदभाव का तीखा विरोध किया। कबीर की साखियाँ और सबद उनके विचारों का प्रामाणिक स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। इन रचनाओं में हमें उनके जीवन-दर्शन, आध्यात्मिकता, सामाजिक चेतना और मानवीय संवेदनाओं का सशक्त प्रतिबिंब देखने को मिलता है।

कबीर की वाणी सहज, सरल और लोकभाषा में है, जिससे सामान्य जन भी उनकी बातों को समझ सके। उनकी साखियाँ दोहे के रूप में हैं और सबद गेय पदों के रूप में। ये दोनों ही रूप कबीर की शिक्षा, अनुभूति और चिंतन को स्पष्ट करते हैं।


कबीर का जीवन और समय-परिवेश

कबीर का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी (वाराणसी) में हुआ। उनके जन्म को लेकर मतभेद है, परंतु परंपरा के अनुसार वे एक नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति द्वारा पाले गए। कबीर का जीवन सामाजिक संघर्षों से भरा रहा। उस समय समाज में हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव, जातिगत ऊँच-नीच, अंधविश्वास और कर्मकांड की जड़ता व्याप्त थी।

इसी समय कबीर ने अपने सशक्त शब्दों के माध्यम से मानवता, प्रेम और भक्ति का संदेश दिया। उन्होंने गुरु रामानंद से आध्यात्मिक शिक्षा पाई और निर्गुण भक्ति धारा को अपनाया।


कबीर की वाणी का स्वरूप

कबीर की वाणी को बीजक नामक ग्रंथ में संगृहीत किया गया है। उनकी वाणी मुख्यतः तीन रूपों में मिलती है –

  • साखियाँ
  • सबद
  • रमैनी

इनमें से साखियाँ और सबद सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं।


कबीर की साखियाँ

साखी का अर्थ है – साक्षी या अनुभवजन्य कथन। कबीर की साखियाँ प्रायः दोहे के रूप में लिखी गई हैं। इनमें जीवन-दर्शन, नैतिक शिक्षा, सामाजिक संदेश और आध्यात्मिक भावनाएँ व्यक्त होती हैं।

साखियों की विशेषताएँ
  • सरल और सहज भाषा
  • लोकजीवन से जुड़े बिंब
  • सामाजिक विसंगतियों की आलोचना
  • मानवतावादी दृष्टिकोण
  • गहन दार्शनिकता
उदाहरण और व्याख्या

“बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥”

इस साखी में कबीर बताते हैं कि केवल बाहरी बड़ा होना, ऊँचे पद या प्रतिष्ठा पाना किसी काम का नहीं, यदि उसका लाभ दूसरों को न मिले। जैसे खजूर का पेड़ ऊँचा तो होता है, पर उसकी छाया यात्रियों को राहत नहीं देती।


“साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप॥”

यहाँ कबीर कहते हैं कि सत्य से बढ़कर कोई तप नहीं और असत्य से बड़ा कोई पाप नहीं। जिसके हृदय में सत्य है, वहाँ ईश्वर का वास है।


“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥”

यहाँ धैर्य और संयम का संदेश है। जीवन में सब कुछ समयानुसार ही होता है। जैसे ऋतु आने पर ही फल लगते हैं।


साखियों का महत्व
कबीर की साखियाँ केवल धार्मिक उपदेश नहीं हैं, बल्कि वे मानव-जीवन का मार्गदर्शन करती हैं। इनमें सत्य, प्रेम, धैर्य, करुणा और विवेक का संदेश है।


कबीर के सबद

सबद का अर्थ है – शब्द या ध्वनि। कबीर के सबद प्रायः गेय पदों में हैं और इन्हें गाया भी जाता है। सबद में कबीर की भक्ति, रहस्यवाद और ईश्वर-प्रेम की गहन अभिव्यक्ति मिलती है।

सबद की विशेषताएँ
  • ईश्वर के प्रति गहन लगाव
  • निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति
  • अलौकिक प्रेम और समर्पण
  • सहज रहस्यवाद
  • साधक को आंतरिक साधना का मार्ग
उदाहरण और व्याख्या

“मन लागो मेरा यार फकीरी में।
सब तन छाड़ि दियो संसार कीरी में॥”

यहाँ कबीर कहते हैं कि मेरा मन अब फकीरी में लग गया है। उन्होंने सांसारिक मोह-माया छोड़कर आध्यात्मिक जीवन को अपनाया।


“जहाँ देखो तहाँ तू ही तू, तुझ बिन दूसरा कोई।
गगन मंडल में तू ही तू, धरती अंबर सोई॥”

इस सबद में कबीर ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध कराते हैं। सारा ब्रह्मांड उसी की सत्ता से परिपूर्ण है।


“सहज मिले सोई राम है, तजि खोजे तो दूर।
कबीर कहे सुनो भाई साधो, वही राम भरपूर॥”

यहाँ कबीर कहते हैं कि ईश्वर को सहज भाव से पाया जा सकता है, उसे बाहर ढूँढने की आवश्यकता नहीं।


कबीर की वाणी में सामाजिक चेतना

कबीर केवल आध्यात्मिक कवि नहीं थे, वे सामाजिक सुधारक भी थे। उनकी साखियों और सबदों में सामाजिक कुरीतियों की आलोचना स्पष्ट दिखाई देती है।

  • जातिवाद का विरोध: उन्होंने कहा कि जन्म से कोई ऊँच-नीच नहीं होता।
  • धार्मिक पाखंड का विरोध: मंदिर-मस्जिद की औपचारिकता की जगह वे आंतरिक भक्ति पर जोर देते हैं।
  • मानवतावाद का संदेश: कबीर के लिए सबसे बड़ा धर्म मानव सेवा और प्रेम है।

कबीर का दार्शनिक पक्ष

कबीर ने निर्गुण भक्ति को अपनाया। उनके अनुसार ईश्वर निराकार, अनादि और सर्वव्यापी है। वे सहज योग और आंतरिक साधना के पक्षधर थे। कबीर ने कहा कि ईश्वर को पाने के लिए बाहरी साधनों की अपेक्षा अंतःकरण की शुद्धि आवश्यक है।


कबीर की भाषा और शैली

कबीर ने सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया, जिसमें भोजपुरी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी और फारसी शब्दों का भी मेल है। उनकी भाषा सरल है, परंतु उसमें व्यंग्य, तीखापन और गहराई है।

  • वे लोकोक्तियों और प्रतीकों का सुंदर प्रयोग करते हैं।
  • उनकी शैली सहज, बोधगम्य और प्रभावशाली है।

कबीर की साखियों एवं सबदों की प्रासंगिकता

आज भी कबीर की वाणी उतनी ही प्रासंगिक है।

  • जातिवाद और धार्मिक कट्टरता आज भी समाज में विद्यमान है।
  • उपभोक्तावाद और भौतिकवाद के युग में कबीर का सादगी और फकीरी का संदेश मार्गदर्शक है।
  • उनके सत्य, प्रेम और मानवीय मूल्य आज भी जीवन को सही दिशा देते हैं।

निष्कर्ष

कबीर की साखियाँ और सबद न केवल भक्ति साहित्य की अनमोल धरोहर हैं, बल्कि मानवता का सार्वभौमिक संदेश भी देती हैं। उन्होंने लोकभाषा में जीवन और समाज की सच्चाइयों को उजागर किया। उनकी वाणी आज भी हमें यह सिखाती है कि सच्चा धर्म किसी विशेष आडंबर में नहीं, बल्कि सत्य, प्रेम और मानवता में निहित है।

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