political science CBSE class 11 course B अध्याय – 1 : राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ


अध्याय – 1 : राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ


भूमिका (Introduction)

  • भारत ने लगभग दो शताब्दियों की ब्रिटिश दासता से मुक्ति पाकर 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की।
  • स्वतंत्रता के साथ ही अनेक गंभीर चुनौतियाँ सामने आईं – जैसे विभाजन, एकीकरण, एकता और पुनर्निर्माण
  • यह केवल स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रश्न नहीं था, बल्कि एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण का कार्य था जो लोकतांत्रिक, एकजुट और विकसित हो सके।
  • भारत के प्रमुख नेता – महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि ने इस दिशा में मार्गदर्शन दिया।
  • राष्ट्र-निर्माण का अर्थ था विविध भाषाओं, धर्मों, जातियों और क्षेत्रों के लोगों में एक साझा राष्ट्रीय पहचान विकसित करना।
  • प्रमुख उद्देश्य थे –
    1. विभिन्न रियासतों और प्रांतों का राजनीतिक एकीकरण
    2. सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन
    3. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा

1. राष्ट्र-निर्माण की मुख्य चुनौतियाँ

1.1 राजनीतिक एकीकरण की चुनौती

  • स्वतंत्रता के समय भारत दो भागों में बँटा था –
    • ब्रिटिश प्रांत, जो सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन थे।
    • 565 देशी रियासतें, जिन पर देशी राजा शासन करते थे।
  • ब्रिटिश सत्ता समाप्त होने के बाद ये रियासतें भारत या पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र रहने के लिए स्वतंत्र थीं।
  • इन रियासतों को एक भारत में जोड़ना सबसे बड़ी चुनौती थी।

1.2 विभाजन की चुनौती

  • भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ और भारत व पाकिस्तान दो देश बने।
  • इसके परिणामस्वरूप:
    • लगभग एक करोड़ लोग विस्थापित हुए।
    • लगभग दस लाख लोग हिंसा में मारे गए।
    • शरणार्थी समस्या ने पूरे प्रशासन को हिला दिया।
  • पंजाब, बंगाल और दिल्ली में व्यापक हिंसा हुई।
  • विभाजन ने भारत की राजनीतिक, सामाजिक और भावनात्मक एकता को गहरा आघात पहुँचाया।

1.3 आर्थिक पिछड़ापन

  • ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक और शोषणकारी रही।
  • स्वतंत्रता के समय भारत में:
    • उद्योग बहुत कम थे।
    • कृषि पारंपरिक और वर्षा पर निर्भर थी।
    • गरीबी, बेरोजगारी और असमानता चरम पर थी।
  • उद्देश्य था – एक गरीब कृषि प्रधान समाज को आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र में बदलना।

1.4 सामाजिक विविधता और एकता की चुनौती

  • भारत की आबादी अत्यंत विविधतापूर्ण है।
  • यहाँ हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और अनेक जनजातीय समुदाय रहते हैं।
  • लगभग 1600 भाषाएँ और अनेक जाति-उपजातियाँ हैं।
  • चुनौती थी – विविधता में एकता को बनाए रखना और सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करना।

1.5 लोकतंत्र की स्थापना

  • उस समय अधिकांश एशियाई और अफ्रीकी देशों में लोकतंत्र नहीं था।
  • भारत ने साहसिक निर्णय लेते हुए सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार लागू किया –
    • हर नागरिक को जाति, धर्म, लिंग या शिक्षा की परवाह किए बिना मतदान का अधिकार मिला।
  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना एक ऐतिहासिक प्रयोग था।

1.6 धर्मनिरपेक्षता की चुनौती

  • विभाजन के बाद देश में सांप्रदायिक तनाव गहरा गया था।
  • इसलिए भारत ने धर्मनिरपेक्ष राज्य का सिद्धांत अपनाया।
  • प्रत्येक नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता दी गई।
  • राज्य किसी भी धर्म के पक्ष या विरोध में नहीं रहेगा।
  • विभिन्न धर्मों के बीच सद्भाव और सहिष्णुता बनाए रखना आज भी एक सतत चुनौती है।

2. नए राज्य और क्षेत्रीय चुनौतियाँ

2.1 रियासतों का एकीकरण

  • सरदार वल्लभभाई पटेल, उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री, ने वी. पी. मेनन की सहायता से रियासतों के एकीकरण का नेतृत्व किया।
  • पटेल ने कूटनीति, मनाना और आवश्यक होने पर शक्ति का प्रयोग – तीनों माध्यम अपनाए।

एकीकरण की प्रक्रिया

  1. एसेशन पर हस्ताक्षर (Instrument of Accession)
    • रियासतें रक्षा, विदेश नीति और संचार विषयों पर भारत में शामिल हुईं।
  2. विलय संधियाँ (Merger Agreements)
    • बाद में अनेक रियासतें पूर्ण रूप से भारत में विलय हो गईं।
  3. प्रशासनिक पुनर्गठन
    • छोटी रियासतों को बड़े प्रांतों में मिलाकर दक्षता बढ़ाई गई।

प्रमुख उदाहरण

  • जूनागढ़ – मुस्लिम नवाब पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था, पर जनता हिंदू थी। जनमत-संग्रह के बाद यह भारत में शामिल हुआ।
  • हैदराबाद – निज़ाम स्वतंत्र रहना चाहता था। भारत ने ऑपरेशन पोलो (1948) चलाकर इसे जोड़ा।
  • कश्मीर – महाराजा हरि सिंह ने पहले स्वतंत्र रहना चाहा, लेकिन पाकिस्तान समर्थित हमले के बाद भारत से विलय का समझौता किया।
  • 1950 तक लगभग सभी रियासतें भारतीय संघ का हिस्सा बन गईं।

2.2 राज्यों का पुनर्गठन

  • ब्रिटिश प्रांतों और रियासतों की सीमाएँ भाषायी दृष्टि से मिश्रित थीं।
  • जनता ने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग की।

राज्यों के पुनर्गठन आयोग (SRC)

  • 1953 में गठित – अध्यक्ष फज़ल अली
  • सिफारिश – राज्यों की सीमाएँ भाषा के आधार पर पुनर्निर्धारित की जाएँ।
  • परिणाम – 1956 का राज्यों का पुनर्गठन अधिनियम, जिससे 14 राज्य और 6 केंद्रशासित प्रदेश बने।

आंध्र प्रदेश का उदाहरण

  • पहला भाषाई राज्य
  • तेलुगु भाषी जनता ने अलग राज्य की माँग की।
  • पोत्ती श्रीरामलू के आमरण अनशन के बाद 1953 में आंध्र प्रदेश का गठन हुआ।

2.3 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

  • कुछ क्षेत्रों ने आर्थिक उपेक्षा या सांस्कृतिक पहचान के कारण अलग राज्य की माँग की।
  • उदाहरण:
    • नागालैंड (1963) – वर्षों के आंदोलन के बाद राज्य बना।
    • पंजाब (1966) – पंजाबी और हिंदी भाषी क्षेत्रों के आधार पर विभाजित।
    • मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा (1972) – पूर्ण राज्य बने।
  • भारत ने इन आकांक्षाओं को वार्ता, सहमति और संवैधानिक उपायों से सुलझाया।

3. विभाजन, पुनर्वास और उसके परिणाम

3.1 विभाजन के कारण

  • मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा दिया गया दो-राष्ट्र सिद्धांत – हिंदू और मुस्लिम दो अलग राष्ट्र हैं।
  • 1946 के बाद सत्ता-साझेदारी की असफलता।
  • बंगाल और पंजाब में सांप्रदायिक हिंसा ने विभाजन की माँग को बढ़ाया।
  • ब्रिटिश सरकार ने माउंटबेटन योजना (1947) के तहत भारत को दो देशों में बाँट दिया।

3.2 तात्कालिक परिणाम

  • हिंसा और विस्थापन: लगभग एक करोड़ लोग विस्थापित और दस लाख मारे गए।
  • संपत्ति का बँटवारा: सेना, रेल, डाक, मुद्रा आदि बाँटनी पड़ी।
  • शरणार्थी समस्या: लाखों लोगों के लिए घर, भोजन और रोजगार की व्यवस्था करनी पड़ी।
  • भावनात्मक घाव: विभाजन ने लोगों के मन में गहरा दुःख और अविश्वास छोड़ा।
  • कश्मीर विवाद: पाकिस्तान ने आक्रमण किया, भारत ने सेना भेजी, और यह विवाद आज तक चला आ रहा है।

3.3 पुनर्वास प्रयास

  • सरकार ने शरणार्थी शिविर, आवास योजनाएँ और रोजगार कार्यक्रम चलाए।
  • विशेष रूप से दिल्ली, पंजाब और बंगाल में पुनर्वास किया गया।
  • कठिनाइयों के बावजूद भारत ने कुछ ही वर्षों में शरणार्थियों को मुख्यधारा में शामिल कर लिया।

4. राज्यों का पुनर्गठन और एकीकरण

4.1 भाषायी पुनर्गठन

  • भाषा किसी व्यक्ति की संस्कृति और पहचान से जुड़ी होती है।
  • प्रारंभ में नेताओं ने भाषाई पुनर्गठन का विरोध किया क्योंकि इससे एकता के टूटने का डर था।
  • लेकिन जनता के आंदोलनों से यह स्पष्ट हुआ कि भाषाई राज्य लोकतंत्र और प्रशासन के लिए आवश्यक हैं।
  • इसने भारत की संघीय व्यवस्था को मजबूत किया।

4.2 1956 के बाद बने नए राज्य

  • गुजरात और महाराष्ट्र (1960) – बंबई राज्य से अलग हुए।
  • हरियाणा (1966) – पंजाब से अलग हुआ।
  • झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड (2000) – आर्थिक और सांस्कृतिक आधार पर बने।
  • तेलंगाना (2014) – लंबे आंदोलन के बाद बना।
  • यह दर्शाता है कि भारत की संघीय प्रणाली लचीली और संवेदनशील है।

4.3 एकता और विविधता का संतुलन

  • भाषाई राज्यों के निर्माण से यह साबित हुआ कि विविधता में एकता संभव है।
  • केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन संघवाद का आधार बना।
  • इसने अलगाववाद की प्रवृत्तियों को कम किया और लोकतांत्रिक समाधान का मार्ग खोला।

5. संघर्ष और समायोजन

5.1 सांप्रदायिक संघर्ष

  • विभाजन की हिंसा के बाद कई क्षेत्रों में साम्प्रदायिक तनाव बने रहे।
  • समय-समय पर दंगे हुए, परंतु भारत ने धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता और समानता की नीति से इन पर नियंत्रण रखा।

5.2 क्षेत्रीय और जातीय आंदोलन

  • उत्तर-पूर्व, पंजाब और कश्मीर जैसे क्षेत्रों में अलग पहचान की माँग उठी।
  • भारत ने इन आंदोलनों से निपटने के लिए –
    • संवाद,
    • विशेष स्वायत्तता,
    • विकास योजनाओं का सहारा लिया।
  • संविधान के अनुच्छेद 370 (अब समाप्त) और अनुच्छेद 371 में ऐसे विशेष प्रावधान दिए गए।

5.3 नेतृत्व की भूमिका

  • नेहरू ने “विविधता में एकता” का आदर्श रखा।
  • पटेल ने दृढ़ता से रियासतों का एकीकरण किया।
  • बाद के नेताओं ने केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखा।

6. लोकतांत्रिक संस्थाएँ और विकास

6.1 लोकतांत्रिक ढाँचे की स्थापना

  • संविधान सभा (1946–49) ने भारत का संविधान बनाया।
  • 26 जनवरी 1950 को भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बना।
  • प्रमुख संस्थाएँ स्थापित की गईं –
    • संसद – कानून बनाने हेतु।
    • न्यायपालिका – न्याय और अधिकारों की रक्षा हेतु।
    • निर्वाचन आयोग – स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हेतु।

6.2 आर्थिक नियोजन

  • भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई – सार्वजनिक व निजी दोनों क्षेत्र साथ-साथ।
  • 1950 में योजना आयोग की स्थापना कर पाँच वर्षीय योजनाएँ शुरू की गईं।
  • मुख्य लक्ष्य:
    • कृषि का आधुनिकीकरण।
    • उद्योगों का विकास।
    • शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार का विस्तार।

6.3 सामाजिक परिवर्तन

  • अस्पृश्यता का उन्मूलन और समानता का संवर्धन
  • अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण।
  • महिला सशक्तिकरण और ग्रामीण विकास पर बल।
  • उद्देश्य – न्यायपूर्ण, समान और आत्मनिर्भर समाज की स्थापना।

7. भारत की विदेश नीति

7.1 गुटनिरपेक्षता की नीति

  • शीत युद्ध के समय भारत ने किसी भी शक्ति समूह में शामिल न होने का निर्णय लिया।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के प्रमुख नेता – नेहरू, नासिर, टिटो
  • उद्देश्य – शांति, स्वतंत्रता और साम्राज्यवाद-विरोध।
  • भारत ने अमेरिका और सोवियत संघ दोनों से मित्रता रखी।

7.2 पड़ोसी देशों से संबंध

  • भारत ने अधिकांश पड़ोसियों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए।
  • लेकिन:
    • पाकिस्तान से कश्मीर को लेकर युद्ध (1947, 1965, 1971, 1999)।
    • चीन से सीमा विवाद (1962 का युद्ध)।
  • भारत ने हमेशा पंचशील सिद्धांतों के तहत शांति का समर्थन किया।

8. प्रारंभिक राष्ट्र-निर्माण से मिली शिक्षाएँ

  1. लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुईं
    गरीब और अशिक्षित देश में भी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुए।
  2. विविधता में एकता
    भाषाई, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता भारत की शक्ति बनी।
  3. लचीला संघवाद
    संविधान ने केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखा।
  4. धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता
    सभी धर्मों को समान सम्मान देना राष्ट्र की नीति बनी।
  5. दूरदर्शी नेतृत्व
    नेहरू, पटेल, अम्बेडकर जैसे नेताओं ने लोकतंत्र और विकास की नींव रखी।

9. वर्तमान और सतत चुनौतियाँ

  • क्षेत्रीय असमानताएँ
  • सांप्रदायिकता और जातिवाद
  • भ्रष्टाचार और लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण
  • पर्यावरणीय संकट
  • वैश्वीकरण और आर्थिक असमानता
  • राष्ट्र-निर्माण एक निरंतर प्रक्रिया है, जिसके लिए जन-भागीदारी, सहिष्णुता और न्याय आवश्यक हैं।

उपसंहार (Conclusion)

  • भारत की स्वतंत्रता के साथ राष्ट्र-निर्माण की यात्रा अराजकता, विभाजन और असुरक्षा के बीच शुरू हुई।
  • लेकिन दूरदर्शी नेतृत्व, संविधानिक दृष्टि और जनता की एकता से भारत ने इन कठिनाइयों को पार किया।
  • रियासतों का एकीकरण, लोकतंत्र की स्थापना और भाषाई राज्यों का निर्माण भारत की एकता को मजबूत करते हैं।
  • आज भारत एक जीवंत लोकतंत्र है जहाँ विविधता और एकता साथ-साथ चलती है।
  • राष्ट्र-निर्माण एक सतत यात्रा है – जो सामाजिक न्याय, आर्थिक विकास और राष्ट्रीय एकता के साथ आगे बढ़ती रहेगी।
  • भारत का अनुभव यह सिद्ध करता है कि विविधता असमानता नहीं, बल्कि शक्ति का प्रतीक हो सकती है।


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