रघुवीर सहाय – कबीर की साहेबानी कक्षा 12

रघुवीर सहाय – कबीर की साहेबानी


प्रस्तावना

हिंदी साहित्य में रघुवीर सहाय का नाम उन कवियों में गिना जाता है जिन्होंने कविता को केवल भाव-विभोर करने वाला माध्यम न मानकर उसे यथार्थ और सामाजिक चेतना का दस्तावेज बनाया। वे नई कविता आंदोलन के प्रतिनिधि कवियों में अग्रगण्य थे। रघुवीर सहाय की कविताओं में सत्ता के विरुद्ध तीखा प्रतिरोध, जनता के जीवन-संघर्ष की व्यथा और समय के साथ बदलते राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ का गहरा चित्रण मिलता है।

उनकी चर्चित कविताओं में “कबीर की साहेबानी” विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस कविता में रघुवीर सहाय ने कबीर की परंपरा को नए समय से जोड़ा और आज की व्यवस्था, राजनीति और समाज की विसंगतियों को उजागर किया।


रघुवीर सहाय का संक्षिप्त जीवन-परिचय

  • जन्म: 9 दिसम्बर 1929, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
  • शिक्षा: लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर
  • पत्रकारिता और संपादन: नवभारत टाइम्स सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में कार्य किया
  • प्रमुख काव्य-संग्रह: सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, लोग भूल गए हैं, कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ आदि
  • निधन: 30 दिसम्बर 1990

रघुवीर सहाय ने कविता को सत्ता-विरोधी स्वर, जनता की आवाज़ और सामाजिक सरोकारों से जोड़ा। उनकी कविताओं का मूल स्वर था – अन्याय और शोषण के विरुद्ध प्रतिरोध


कबीर की साहेबानी : परिचय

“कबीर की साहेबानी” रघुवीर सहाय की चर्चित कविताओं में से एक है। इसमें कवि ने कबीर की निर्भीकता, उनकी सच बोलने की परंपरा और उनकी विद्रोही चेतना को समकालीन संदर्भ में प्रस्तुत किया है।

यह कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि –

  • क्या आज के समय में कबीर जैसी निर्भीक वाणी संभव है?
  • क्या सत्ता और समाज सच बोलने वाले को स्वीकार करेंगे?
  • क्या आज की व्यवस्था में ईमानदारी और साहस की जगह है?

रघुवीर सहाय ने इन प्रश्नों के माध्यम से अपने समय की राजनीतिक विडंबना और सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया।


कबीर की परंपरा और रघुवीर सहाय

कबीर भारतीय भक्ति साहित्य के ऐसे संत कवि थे जिन्होंने सामाजिक पाखंड, जातिवाद और धार्मिक ढकोसलों पर प्रहार किया। उन्होंने निर्भीक स्वर में कहा –
“साँच कहो तो मारन धावे।”

रघुवीर सहाय ने कबीर की इसी निर्भीकता को आधुनिक राजनीति और समाज के संदर्भ में लिया।

  • कबीर ने अपने समय की धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी थी।
  • रघुवीर सहाय ने अपने समय की राजनीतिक सत्ता और लोकतांत्रिक पाखंड को चुनौती दी।
  • दोनों का लक्ष्य था – सत्य का उद्घाटन और जनता के पक्ष में खड़ा होना।

कविता का स्वर और विषय-वस्तु

“कबीर की साहेबानी” में कवि ने कहा है कि यदि आज कबीर होते और सच बोलते, तो सत्ता उन्हें चुप कराने का हर तरीका अपनाती।

कविता का मूल स्वर है –

  • सत्ता सच को दबाना चाहती है।
  • समाज सच बोलने वाले को अकेला कर देता है।
  • व्यवस्था में ईमानदार और निर्भीक व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं बचा।
  • परंतु, फिर भी कबीर जैसी निर्भीक आवाज़ मरती नहीं।

प्रमुख बिंदु और विश्लेषण

1. सत्ता का चरित्र

कविता में रघुवीर सहाय ने सत्ता के चरित्र पर तीखा व्यंग्य किया है।

  • सत्ता हमेशा चाहती है कि लोग उसकी प्रशंसा करें, विरोध न करें
  • यदि कोई सच बोले, तो उसे खामोश कर दिया जाए।
  • यही आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबना है।

2. कबीर की निर्भीकता

कबीर ने कभी भी झूठ, पाखंड और अन्याय का समर्थन नहीं किया।

  • उन्होंने राजा से लेकर पुजारी तक सबकी आलोचना की।
  • रघुवीर सहाय मानते हैं कि यही निर्भीकता आज भी जरूरी है।
  • परंतु आज का समाज और राजनीति इस निर्भीकता को सहन नहीं कर पाते।

3. जनता की भूमिका

कविता में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि जनता क्यों चुप है?

  • जब कोई सच बोलता है, तो जनता उसका साथ नहीं देती।
  • जनता डर, भ्रम और उदासीनता में जीती है।
  • यही कारण है कि सत्ता और अधिक शक्तिशाली हो जाती है।

4. भाषा और शैली

“कबीर की साहेबानी” की भाषा अत्यंत सरल, व्यंग्यपूर्ण और प्रभावशाली है।

  • रघुवीर सहाय ने लोकभाषा और बोलचाल के मुहावरे का प्रयोग किया।
  • उनकी शैली में तीखापन और व्यंग्य दोनों हैं।
  • यह कविता सीधे पाठक से संवाद करती है।

कविता का संदेश

  1. सच बोलना ही सबसे बड़ा साहस है।
  2. सत्ता सच से डरती है और उसे दबाने का प्रयास करती है।
  3. जनता की चुप्पी सत्ता को मजबूत करती है।
  4. कबीर जैसी निर्भीकता हर युग में जरूरी है।

रघुवीर सहाय और सामाजिक चेतना

रघुवीर सहाय की कविताएँ सिर्फ साहित्य नहीं, बल्कि समाज का आईना हैं।

  • उन्होंने जनता की पीड़ा और संघर्ष को आवाज़ दी।
  • उनकी कविताओं में लोकतंत्र के नाम पर होने वाले ढोंग और पाखंड की आलोचना है।
  • वे मानते थे कि कविता का काम केवल सुंदर भावों को चित्रित करना नहीं, बल्कि सत्ता के झूठ को उजागर करना भी है।

कबीर और रघुवीर सहाय : समानताएँ

  • निर्भीकता: दोनों ने सच बोलने से कभी परहेज नहीं किया।
  • सामाजिक आलोचना: कबीर ने धर्म और जाति की रूढ़ियों पर प्रहार किया, रघुवीर सहाय ने राजनीति और सत्ता की विसंगतियों पर।
  • जनता का पक्ष: दोनों ही कवियों का झुकाव शोषित और पीड़ित जनता के पक्ष में था।
  • भाषा की सादगी: दोनों ने सरल और सहज भाषा का प्रयोग किया ताकि जनता उन्हें समझ सके।

कबीर की साहेबानी की प्रासंगिकता

आज भी यह कविता उतनी ही प्रासंगिक है जितनी लिखे जाने के समय थी।

  • आज भी सच बोलने वालों पर हमला होता है।
  • पत्रकार, लेखक और विचारक सत्ता के खिलाफ बोलने पर निशाना बनाए जाते हैं।
  • जनता आज भी चुप रहती है और धीरे-धीरे लोकतंत्र खोखला होता जाता है।

इसलिए “कबीर की साहेबानी” केवल एक कविता नहीं, बल्कि समकालीन राजनीति और समाज की सच्चाई का बयान है।


निष्कर्ष

“कबीर की साहेबानी” में रघुवीर सहाय ने यह दिखाया कि कबीर जैसी निर्भीकता आज भी जरूरी है। सच बोलने वालों पर चाहे कितने ही अत्याचार हों, पर उनकी आवाज़ कभी मरती नहीं। यह कविता हमें सच के पक्ष में खड़े होने, सत्ता से सवाल करने और जनता की पीड़ा को आवाज़ देने की प्रेरणा देती है।


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